करने का गया की रोना के कहर से आतंकित देश जब बचाव की खातिर लॉकडाउन-2 में जीने को मजबूर है, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा राजस्थान के देशव्यापी चर्चित कोचिंग केंद्र-कोटा शहर के हॉस्टलों में रह रहे अपने प्रदेश के छात्रों को वापस लाने के लिए बसें भेजे जाने पर बहस और राजनीति, दोनों शुरू हो गयी हैं। बेशक योगी की इस विवादास्पद पहल का कारण मानवीय बताया जा रहा हैक्योंकि लॉकडाउन के चलते इन हॉस्टलों के रसोइयों ने आना बंद कर दिया है। परिणामस्वरूप हॉस्टलों में रह रहे छात्रों के समक्ष खाने का भी संकट पैदा हो गया है। निश्चय ही भोजन जीवन यापन की पहली अनिवार्य आवश्यकता है, पर क्या ऐसी समस्या से रूबरू होने वाले कोटा में उत्तर प्रदेश के छात्र ही हैं? जाहिर हैनहीं। वहां देश के अन्य राज्यों के छात्र भी हैं। तभी तो बिहार में इस मुद्दे पर राजनीति भी शुरू हो गयी है कि जब योगी दूसरे प्रदेशों में फंसे अपने प्रदेशवासियों को निकालने के लिए पहल कर सकते हैं, तो नीतिश कुमार सरकार क्यों मूकदर्शक बनी हुई है? सच तो यह है कि देश भर में ऐसी परिस्थितियां झेल रहे कामकाजी एकाकी लोगों की संख्या करोड़ों में हो सकती है, जो भोजन के लिए उन बाहरी व्यवस्थाओं पर निर्भर हैं, जो 22 मार्च के जनता कप! के बाद से ठप्प पड़ी हैं। ध्यान रहे कि गत 25 मार्च को लॉकडाउन के पहले चरण की घोषणा के बाद अपने घर जाने के लिए दिल्ली के अंतर्राज्यीय बस टर्मिनस पर हजारों की संख्या में इकट्ठे हो गये उत्तर प्रदेश के मूल निवासी प्रवासी मजदूरों को गंतव्य तक पहुंचाने के लिए योगी ने पड़ोसी राज्य हरियाणा से रोडवेज बसों के रूप में मदद मांगी थी। बेशक बाद में, दिल्ली समेत देश भर में कई जगह इसी तरह इकट्ठे हो गये इन प्रवासी मजदूरों को सीधे घर भेजने के बजाय पहले निकटवर्ती स्थान पर 14 दिन तक क्वारंटीन करने का निर्णय लिया गया। इस तरह क्वारंटीन केंद्रों में रखे गये समेत लॉकडाउन के पहले चरण में देश भर से प्रवासियों की व्यथा-कथा की, सरकार और समाज द्वारा हरसंभव मदद के बावजूद, जो जानकारियां आयीं, वे मानवीय स्वभाव और व्यवहार के मद्देनजर कई सवाल खड़े करती हैं। जैसा कि कहा-लिखा भी गया है कि 1947 में भारत विभाजन के बाद आबादी का यह सबसे बड़ा पलायन रहा। बेशक वैसी परिस्थितियां कतई नहीं थीं, पर वे इस मामले में और भी जटिल थीं, और आज भी हैं, कि एक-दूसरे से सामाजिक दूरी या शारीरिक दूरी ही इस अबूझ बीमारी-वायरस से बचाव का एकमात्र उपाय है। ऐसे में मदद की मानवीय भावना में अपने बचाव की चाह बाधक बने तो आश्चर्य नहीं होना चाहिएइसके बावजूद सरकारी तंत्र से ले कर समाज ने इस अभूतपूर्व आपदाकाल में जिस तरह जरूरतमंदों की हरसंभव मदद में हाथ बढ़ाया-बंटाया है, उसकी मिसाल दुनियाभर में भी शायद ही मिलेपर कटु सत्य यह भी है कि समाज से लेकर राज्य सरकार तक भी, इस मदद की अपनी सीमाएं हैं। लॉकडाउन ने निजी- व्यापारिक आय पर ही ब्रेक नहीं लगाया है, राज्य सरकारों के राजस्व के तमाम स्रोतों पर भी विराम लग गया है, जबकि इस संकटकाल में खर्चे कई गुणा बढ़े ही हैं। इसलिए अगर ये प्रवासी जब-तब बच निकल कर अपने घर जाने की कवायद करते हैं तो हमें इस अबूझ विपत्ति काल में आर्थिक के साथ-साथ उनकी मानसिक स्थिति को भी समझने का प्रयास करना चाहिए। यह मानवीय स्वभाव ही है कि आपदाकाल में वह सबसे पहले परिजनों की चिंता करता है और उनके पास पहुंच जाना चाहता है। अब जबकि कोरोना के विश्वव्यापी कहर से उन्हें यह लगने लगा है कि स्थितियां सामान्य होने में कई माह लग सकते हैं, वे बिना किसी आय किराये के घर या मुफ्त के आश्रय स्थल में भी कितने दिन रह सकते हैं, और क्यों? अपने घर लौटने की जद्दोजहद में दिल्ली से ले कर सूरत और मुंबई तक प्रवासियों के अचानक सड़कों पर उतर आने के मूल में यह भी एक बड़ा कारक है। अब जबकि 3 मई तक लॉकडाउन-2 शुरू हो गया है, इन प्रवासियों की बेचैनी बढ़ना स्वाभाविक है। सामान्य समझ भी यही कहती है कि लॉकडाउन 3 मई से आगे न भी बढ़ाया जाये, तो भी आर्थिक गतिविधियों समेत जिंदगी को पटरी पर वापस लौटने में अभी लंबा समय लगेगा। लॉकडाउन-2 की घोषणा करते समय 14 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के कोरोना फ्री क्षेत्रों में 20 अप्रैल से सशर्त सीमित आर्थिक गतिविधियां शुरू करने की बात भी कही थी, लेकिन यह इतना आसान होगा नहीं। बेशक लॉकडाउन के प्रभाव को कम से कम करने के लिए इस बीच रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया से ले कर केंद्र सरकार तक ने कई राहत पैकेज घोषित करने समेत तमाम संभव कदम उठाये हैं, पर नहीं भूलना चाहिए कि धन शक्ति से ले कर श्रम शक्ति तक तमाम कड़ियां जुड़ने से ही तंत्र बनता है और सही मायने में रफ्तार भी पकड़ता है। प्रधानमंत्री की घोषणा के अगले ही दिन सरकार द्वारा जारी दिशा-निर्देशों के मुताबिक आज से ही ये सशर्त सीमित गतिविधियां शुरू होनी हैं। आनेवाले दिनों में इनकी जमीनी हकीकत भी सामने आ जायेगी और इस सीमित प्रयोग के प्रभाव परिणाम भी, लेकिन व्यवहारिकता का तकाजा है कि अब जबकि हालात कुछ नियंत्रित होते दिख रहे हैं, जिन क्षेत्रों में आर्थिक -औद्योगिक गतिविधियों को शुरू होने में अभी वक्त लगना है, उनके श्रमिकों को तमाम जरूरी सुरक्षा प्रबंधों के साथ घर पहुंचाने की व्यवस्था पर विचार किया जाये। हालांकि इन्हें इधर-उधर मदद के सहारे जीवन यापन करते लंबा समय बीत चुका है, फिर भी सावधानी के तौर पर सीधे घर भेजने के बजाय संबंधित राज्य सरकार से बात करके वहीं नजदीक 14 दिन के लिए क्वारंटीन भी किया जा सकता है, ताकि कोरोना के खिलाफ जंग में अभी तक हासिल खतरे में न पड़ जाये। यकीन मानिए कि अपने घर के निकट पहुंच जाने भर से इनका आक्रोश और असुरक्षा भाव काफी हद तक खत्म हो जायेगा तथा इन्हें नियंत्रित करने में जुटे सरकारी तंत्र के समय और ऊर्जा का जरूरत के दूसरों मोर्चों पर बेहतर इस्तेमाल हो पायेगा। बेशक यह सब कर पाना कहने जितना आसान नहीं होगा, पर जो सरकार पूरी दुनिया में बेलगाम नजर आ रहे कोरोना पर काबू पाती नजर आ रही है, उसकी सामर्थ्य पर संदेह नहीं होना चाहिए। नहीं भूलना चाहिए कि कोरोना के समूल नाश और सामान्य स्थितियों की बहाली की लंबी लड़ाई में जीत के लिए देशवासियों का शांत मन- तन से समर्थन-सहयोग पहली व्यावहारिक अनिवार्यता है। जिन परिस्थितियों में ये प्रवासी मजदूर रह रहे हैं, उनमें सामाजिक दूरी के पालन की उम्मीद खुशफहमी के अलावा कुछ नहीं। क्या दिल्ली के अंतर्राज्यीय बस टर्मिनस पर हजारों की तादाद में जुटे प्रवासियों में सामाजिक दूरी का पालन हो पा रहा था? या फिर सूरत में सड़कों पर उतरे और मुंबई में रेलवे स्टेशन पर जमा हुए प्रवासियों के बीच ऐसा कहीं देखने को मिला? विडंबना यह है कि इस आपदाकाल में हमारा राजनीतिक नेतृत्व भी अपने आचरण से प्रेरक उदाहरण पेश नहीं कर पा रहा। जन साधारण के लिए घर से निकलने पर मास्क पहनना अनिवार्य है, लेकिन मंत्री-सांसदविधायक बिना मास्क ही फोटो खिंचवाने की प्रचार लोलुपता से बाज नहीं आ रहे। घर वापसी या बेहतर भोजन की मांग करनेवाले प्रवासियों पर बल प्रयोग किया जाता है, लॉकडाउन के दौरान विवाह से ले कर अंतिम संस्कार तक पर परिजनों की संख्या समेत कई तरह की बंदिशें लागू हैं, लेकिन जालसाजी के आरोपी एक बड़े उद्योगपति कपिल वधावन समेत परिवार को महाराष्ट्र पुलिस का बड़ा अफसर पिकनिक मनाने के लिए पास जारी करता है तो पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा के पोते एवं कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री कुमारस्वामी के बेटे के विवाह में सामाजिक दूरी समेत तमाम बंदिशों की धज्जियां उड़ायी जाती हैं। कोरोना से उत्पन्न हालात और उनसे निपटने के लिए लागू लॉकडाउन को प्रधानमंत्री ने सामाजिक आपातकाल ही करार दिया था।