ट्रंप की मुश्किलें और डब्ल्यूएचओ


 


 


जब विफलता सामने आती है तो व्यक्ति इसकी जिम्मेवारी किसी और पर डालने की कोशिश करता है। यह एक मानवीय स्वभाव भी है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी यही कर रहे हैं। जब इस साल अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव हैं और खुद ट्रंप फिर से राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार हैं, तो ऐसे में अपनी नाकामियों को तरीके से छुपाना और अपने को सफल बताना ट्रंप की मजबूरी भी है। यही कारण है कि ट्रंप ने अमेरिका में कोरोना महामारी से हो रही मौतों का ठीकरा विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) पर फोड़ दिया है। ट्रंप डब्ल्यूएचओ को चीन का मददगार बता रहे हैं। हालांकि ट्रंप खुद ही अपने बार-बार बदलते ब्यानों के कारण उलझते भी नजर आ रहे हैं। जब डब्ल्यूएचओ ने कोरोना को लेकर गंभीर चेतावनी जारी की थी, तो उस समय ट्रंप ने कोरोना को काफी हल्के में लेते हुए कहा था कि अमेरिका में यह बीमारी पूरी तरह से नियंत्रण में है। लेकिन ट्रंप अब आरोप लगा रहे हैं कि कोरोना को लेकर डब्ल्यूएचओ ने दुनिया को बहकाया और गलत बयानी की। डब्ल्यूएचओ और चीन के बीच सांठ-गांठ का आरोप भी लगाया गया। जबकि हैरत की बात यह भी है कि खुद ट्रंप ने बीच में कोरोना से निपटने को लेकर चीनी राष्ट्रपति की तारीफ की थी। इसमें कोई शक नहीं कि डब्ल्यूएचओ को सबसे ज्यादा अनुदान अमेरिका से मिलता है। अगर डब्ल्यूएचओ को मिलने वाले कुल अनुदान की बात करें तो अमेरिका कुल अनुदान का लगभग पंद्रह फीसद देता है। हालांकि ब्रिटेन और जर्मनी भी डब्ल्यूएचओ को काफी अनुदान देते हैं। अगर सदस्य देशों के अनुदान में अमेरिकी भागीदारी देखें, तो यह पैंतीस फीसद है। लेकिन अमेरिका को यह नहीं भूलना चाहिए कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ज्यादातर बनाए गए वैश्विक संगठनों का एक छिपा हुआ मकसद दुनिया भर में अमेरिकी सर्वोच्चता को बनाए रखना भी था। विश्व बैंक और अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष के गठन का भी सबसे ज्यादा लाभ अमेरिका को मिला। डब्ल्यूएचओ पर भी आरोप लगते हैं कि इसने अमेरिकी हितों का खासा ख्याल रखा। दुनिया भर में बनाई गई स्वास्थ्य योजनाओं में अमेरिकी दवा कंपनियों के हितों का भी ख्याल रखा गया। वैश्विक संगठनों को अमेरिका से मिलने वाली अच्छी आर्थिक सहायता का एक प्रमुख उद्देश्य दुनिया में अमेरिका के दबदबे को बनाए रखना रहा है। अमेरिकी अनुदान का एक मुख्य उद्देश्य दुनिया के गरीब देशों को इस बात का अहसास भी कराते रहना है कि गरीब देश अमेरिका के दिए पैसे से अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा कर रहे हैं। चूंकि डब्ल्यूएचओ के पैसे का बड़ा हिस्सा अफ्रीकी और एशियाई देशों में स्वास्थ्य योजनाओं पर खर्च होता रहा है, इसलिए इन इलाकों में अमेरिकी प्रभाव भी बढ़ा। और ऐसा गलत भी नहीं है, क्योंकि दुनिया प्रत्यक्ष रूप से इसे देख भी रही है। डब्ल्यूएचओ द्वारा सदस्य देशों को दी जाने वाली वित्तीय मदद का बत्तीस फीसद अफ्रीकी देशों के हिस्से में जाता है, जबकि एक बड़ा हिस्सा (सत्ताईस फीसद) पूर्वी भूमध्यसागरीय क्षेत्र के देशों को जाता है। दक्षिण और दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के हिस्से में लगभग साढ़े सात फीसद वित्तीय सहायता हासिल होती है। लेकिन फिलहाल स्थिति बदली हुई है। डोनाल्ड ट्रंप अपनी विफलता को छिपाने के लिए सारा दोष डब्ल्यूएचओ पर मढ़ रहे हैं। दरअसल, जिस समय ट्रंप कोविड-19 को कोई संकट मान ही नहीं रहे थे, उस समय डब्ल्यूएचओ इस महामारी की गंभीरता को लेकर पूरी दुनिया को चेता चुका था। चूंकि अब ट्रंप की लापरवाही और गलती सामने आ चुकी है, इसलिए इसका सीधा असर अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों पर पड़ना तय है। अब डब्ल्यूएचओ पर सारा दोष थोपने के अलावा ट्रंप के पास कोई चारा नहीं है। लेकिन क्या अमेरिकी जनता इतनी नादान है? क्या वह हकीकत को समझ नहीं रही है? दुनिया भर में कई मुद्दों पर खेल करने वाला अमेरिकी मीडिया कोविड-19 संकट को लेकर ट्रंप प्रशासन की गलतियों को ईमानदारी से अमेरिकी जनता के सामने रख रहा है। इसी कारण ट्रंप संवाददाता सम्मेलनों में पत्रकारों से भी उलझते नजर आ रहे हैं। लेकिन सच्चाई इतनी कड़वी है कि ट्रंप उससे भाग नहीं सकते। मसलन, अमेरिका में कोरोना संक्रमण का पहला मामला 20 जनवरी को सामने आया था। चीन से आया एक व्यक्ति कोरोना से संक्रमित पाया गया था। ठीक 20 जनवरी को ही अमेरिका से कई हजार किलोमीटर दूर दक्षिण कोरिया में कोरोना संक्रमण का पहला मामला मिला। लेकिन अमेरिका और दक्षिण कोरिया दोनों मुल्कों की प्रतिक्रिया कोरोना संक्रमण को लेकर दूसरे के विपरीत थी। ट्रंप प्रशासन लापरवाह रहा। लेकिन दक्षिण कोरिया ने बिना देर किए निजी क्षेत्र की कई कंपनियों को बुला कर कोरोना से निपटने की तैयारी शुरू कर दी। इसका परिणाम यह हुआ कि वहां हफ्तेभर में कोरोना जांच किट तैयार हो गए। पांच करोड़ की आबादी वाले इस देश में मध्य मार्च तक तीन लाख लोगों की जांच कर ली गई थी। कोरिया ने इस अवधि में जहां प्रति दस लाख व्यक्तियों पर पांच हजार लोगों की जांच की थी, वहीं अमेरिका में यह आंकड़ा प्रति दस लाख सौ लोगों की जांच का था। दरअसल, अमेरिका में यह सवाल पूछा जा रहा है कि कोरोना का पहला मरीज सामने आने के बाद छह हफ्ते तक ट्रंप ने क्या किया? यही अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में मुद्दा बनेगा। डेमोक्रेट तो इस मुद्दा बना ही रहे हैं, कई राज्यों के गर्वनर भी ट्रंप को घेरने में लगे हैं। उनका कहना है कि संघीय सरकार पूरी तरह से लापरवाह रही है और जो कुछ कोरोना से लड़ाई हो रही है, वह राज्य, शहर और अस्पताल अपने स्तर पर इस समस्या से लड़ रहे हैं। सच्चाई तो यह है कि कोरोना का पहला मरीज मिलने के कई हफ्ते बाद जांच केंद्रों और अस्पतालों को कोविड-19 की जांच की अनुमति दी गई। पर्याप्त संख्या में जांच किट नहीं होने के कारण यूएस सेंटर फॉर डिजिज कंट्रोल ने जांच को लेकर कंजूसी बरती। महामारी के मौके पर सिर्फ ट्रंप प्रशासन की लापरवाही ही सामने नहीं आई है, बल्कि उनके कार्यकाल की गई गलतियों से अमेरिकी जनता संकटों में घिर गई। इसलिए डब्ल्यूएचओ को निशाना बनाना तय था। 2018 में राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की महामारी यूनिट को भंग कर दिया गया था। इस इकाई का मुख्य काम किसी भी महामारी के वक्त आपातकालीन योजना तैयार करना होता है। ट्रंप प्रशासन से कई अनुभवी स्वास्थ्य अधिकारी दूर होते गए, क्योंकि ट्रंप के कुछ फैसले उन्हें निराश कर रहे थे। डब्ल्यूएचओ द्वारा कोरोना को लेकर जारी आपातकालीन चेतावनी के दो हफ्ते बाद ट्रंप प्रशासन ने 10 फरवरी को यूएस सेंटर ऑफ डिजिज कंट्रोल के बजट में सोलह फीसद कटौती का प्रस्ताव रखा। इससे पता चलता है कि ट्रंप कोरोना को लेकर गंभीर थे ही नहीं। अमेरिका के स्वास्थ्य विशेषज्ञों को तब और हैरानी हुई, जब ट्रंप ने कहा कि मलेरिया के इलाज में इस्तेमाल होने वाली हाइड्रोक्लोरोक्विन दवा कोरोना में काफी कारगर है। जबकि अमेरिकी स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना था कि यह वैज्ञानिक तरीके से अभी तक प्रमाणित नहीं है। डोनाल्ड ट्रंप दुबारा चुनाव जीतने के लिए पिछले साल ही हर तिकड़म लगा रहे हैं। उन्हें पिछले साल ही अंदाजा हो गया था कि अमेरिका के पूर्व उप-राष्ट्रपति जो बाइडेन डेमोक्रेटिक पार्टी की तरफ से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार हो सकते हैं। इसलिए तरीके से ट्रंप ने बाइडेन के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। कोरोना से निपटने में हुई लापरवाही और मनमानी का परिणाम हजारों लोगों की मौत के रूप में सामने आया है। इसका कोई जवाब ट्रंप के पास अब नहीं है।